16 जून 2021

गोपाल राम गहमरी (प्रसिद्ध जासूसी लेखक)


लेखक: गोपाल राम गहमरी (1866 ई. - 1946 ई.)


हिंदी के धुरंधर जासूसी उपन्यास लेखक 'गोपाल राम गहमरी' का जन्म पौष कृष्ण गुरुवार संवत 1923 (1866) ई. में बारा, जिला गाजीपुर में हुआ। गोपाल राम गहमरी के पिता का नाम राम नारायण था।



उनके पूर्वज फ्रांसीसी सेंट के व्यापारी थे। गहमरी जब छह मास के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया और उनकी मां इन्हे लेकर आपने मायके गहमर चली आयी। गहमर में ही गोपाल राम का लालन पालन हुआ। प्रारंभिक शिक्षा संस्कार यही संपन्न हुए। गहमर से अतरिक्त लगाव के कारण उन्होंने बाद में आपने नाम के साथ आपने ननिहाल को जोड़ लिया और गोपाल राम गहमरी कहलाने लगे।


गोपाल राम गहमरी ने 1871 में गहमर, गाजीपुर से मिडल की परीक्षा पास की। फिर वे गहमर स्कूल में 4 वर्ष तक छात्रों को पढ़ाते रहे और खुद भी उर्दू और अंग्रेजी का अभ्यास करते रहे, क्योंकि कम उम्र होने और धनाभाव के कारण आगे की पढ़ाई नही कर सकते थे। इसके बाद पटना मर्म स्कूल में भर्ती हुए, जहां इस शर्त पर प्रवेश हुआ कि उत्तीर्ण होने पर मिडल पास छात्रों को तीन वर्ष पढ़ना होगा। आर्थिक स्थिति अच्छी ना होने के कारण इस शर्त को स्वीकार कर लिया लेकिन बीच में ही पढ़ाई छोड़कर गहमरी जी बेतिया महाराजा स्कूल में हेड पंडित (हेड मास्टर) की जगह पर कार्य करने चले गए। बलिया रहकर कुछ दिनों तक 'बंदोबस्त' का काम भी देखा और सन 1888 ई. में सब कामों से छूटी कर कुछ दिनों प्रथम श्रेणी में नार्मल की परीक्षा पास की। इसके तुरंत बाद 1889 ई. में रोहतास गढ़ में हेडमास्टर नियुक्त हो गए। मगर यहा भी वे टिक कर नही रह पाए और एक साल तक काम करने के बाद बंबई के प्रसिद्ध प्रकाशक सेठ गंगाविष्णु खेमराज के आमंत्रण पर 1891 ई. में बंबई चले गए।


गहमरी जी जब रोहताश गढ़ में थे तो वही से पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं को भेजा करते थे। जब बंबई में रहने लगे तो वहां भी उनकी कलम गतिशील रही। यह अलग बात है कि वे वहा भी अधिक दिनों तक नहीं टिक सके। वहां आपने अनुकूल अवसरों को ना देखकर, वहा से त्यागपत्र देकर कालाकांकर चले आए। कालाकांकर (प्रतापगढ़,यू.पी.) से निकलने वाले दैनिक हिंदुस्तान के गहमरी जी नियमित लेखक थे। इसके साथ ही उस समय के श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएं 'बिहार बंधु' , 'भारत जीवन' , 'सार सुधानिधि' में भी नियमित लिखते थे। जब 1892 में गहमरी जी राजा रामपाल सिंह के निमंत्रण पर कालाकांकर चले आए तो यहां वे संपादकीय विभाग से संबद्ध हो गए और एक वर्ष तक रहे।यही पर काम करते हुए बांग्ला सीखी और अनुवाद के जरिए साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास भी किया। उन्होंने 'बनवीर' 'देश दशा' 'चित्रांगदा' आदि बांग्ला नाटकों का अनुवाद किया।


गहमरी जी एक जगह बहुत दिनों तक नहीं  टिकते थे। एक बार फिर सन 1893 में बंबई की ओर उन्मुख हुए और पत्र "बंबई व्यापार सिंधु" का संपादन करने लगे। लेकिन पत्र का दुर्भाग्य कहे या गहमरी जी का यह पत्र छह माह बाद बंद हो गया। फिर उन्होंने एस. एस. मिश्र के पत्र भाषा भूषण का संपादन करने लगे। यह मासिक पत्र था जो शीघ्र ही बंद हो गया जिसका कारण आर्थिक, प्रशासनिक ना होकर दंगा होना था। इसके पश्चात मंडला आकर मासिक पत्र 'गुप्तकथा' का कार्य भार संभाला पर अर्थभाव के कारण यह पत्र भी असमय बंद हो गया। गहमरी जी पुन बंबई पहुंच गए और खेमराज जी के 'श्री वेकेंटेश्वर समाचार' नाम के पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया। यह पत्र गहमरी जी के कुशल संपादन में थोड़े समय में ही लोकप्रिय हो गया। इसी दौरान प्रयाग से निकलने वाले प्रदीप (बांग्ला) ने ट्रिब्यून के संपादक नागेंद्र नाथ गुप्ता की एक जासूसी कहानी हिरार मूल्प प्रकाशित हुई थी। गहमरी जी ने उसका हिंदी अनुवाद कर श्री वेंकटेश्वर समाचार में कई किश्तों में प्रकाशित किया। यह जासूसी कहानी पाठको को इतना रुचिकर लगी कि कई पाठको ने इस पत्र की माहकता ले ली।

उस दौर में जासूसी ढंग की कहानियों में पाठको की गहरी रुचि जग रही थी। इसमें कथा में रहस्य और रोचकता ऐसी होती की पाठकों के भीतर एक तरह की जिज्ञासा जगाती और पाठकों को पढ़ने को विवश कर देती | 

गहमरी जी पाठकों के मन मस्तिष्क को समझ चुके थे। 'हीरे का मोल' के अनुवाद की लोकप्रियता और 'जोड़ा जासूस' लिखकर पाठको को प्रतिक्रिया से वे अवगत हो चुके थे। इस लोकप्रियता के कारण वे कई तरह को योजनाएं बनाने लगे। वे यह भी समझ चुके थे कि जासूसी कहानियां के जरिए पाठको का विशाल वर्ग तैयार किया जा सकता है। गहमरी जी पूरी तैयारी के साथ जासूसी लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। 1899 में ही वह घर आकर जासूस निकालना चाहते थे, किंतु बाल मुकुंद गुप्त के पुत्र की शादी के कारण 'भारत मित्र' का संपादन कार्य उन्हे संभालना पड़ा। इसकी वजह से 'जासुस' का प्रकाशन थोड़े समय के लिए स्थगित हो गया। उनकी इच्छा थी कि 'सरस्वती' के साथ ही 'जासूस' का भी प्रकाशन हो , लेकिन यह इच्छा उनके मन में ही रह गई। इस तरह जासूस का प्रकाशन जनवरी 1900 में सरस्वती के साथ ना होकर चार माह बाद मई 1900 में हुआ । गहमरी जी ने 'भारत मित्र' के संपादन के दौरान ही जासूस के निकालने की सूचना दे दी थी। इसका लाभ यह हुआ कि सैंकड़ों पाठको ने प्रकाशित होने से पहले ही पत्रिका की ग्राहकी ले ली।

एक और उल्लेखनीय बात यह है कि हिंदी में जासूस शब्द के प्रचलन का श्रेय गहमरी जी को है। उन्होंने लिखा है कि 1892 ई. से पूर्व किसी पुस्तक में जासूस शब्द नही दिया गया है। उन्होंने अपनी पत्रिका का नामकरण ऐसे किया जिससे आम पाठक आसानी से उसकी विषय वस्तु को समझ सके। 

जासूस शब्द से हालाकि यह बोध होता है की इसमें जासूसी ढंग की कहानियां ही प्रकाशित होती होगी, लेकिन ऐसी बात नहीं थी। उसके हर एक अंक में एक जासूसी कहानी के अलावा समाचार विचार और पुस्तकों की समीक्षाएं भी नियमित रूप से छपती थी। 

जासूस निकालने के लिए उन्हे धन की आवश्यकता थी इसकि पूर्ति उन्होंने मनोरमा और मायाविनी लिख कर की 'जासूस' का पहला अंक बाबू अमीर सिंह के हरिप्रकाश प्रेस से छप कर आया और पहले ही महीने मे विपीपी से पौने दो सौ रुपए की प्राप्ति हुई एव यह उस जमाने मे भी प्री बुकिंग से मिलने वाली राशि थी। इसने अपने विशेषांक मे भी लोकप्रियता की सारी हदो को पार करते हुए शिखर को छु लिया था। अपने प्रवेशाक मे जासूस का परिचय कुछ इस अंदाज मे पेश किया " डरिये मत यह कोई भाकोआ नहीं है धोती सरका कर भागिए मत यह कोई सरकारी सी आई डी नहीं है। है क्या ? क्या है यह? है यह पचास पन्नों की सुंदर सजाई मासिक माहवारी किताब जो हर एक मे बड़े चुटीले बड़े रसीले बड़े चटकीले बड़े गरबीले बड़े नशीले मामले छपते है। हर महीने बड़ी पचीली बड़ी छ्क्करदार बड़ी दिलचस्प घटनाओ से बड़े फड़कते हुए अच्छी शिक्षा और उपदेश देने वाले उपन्यास निकलते है। कहानी की नदी ऐसे लहराती है किस्से का झरना ऐसे सरसराता है की पढ़ने वाले आनंद के भंवर मे डूबते - उतराने लगते है। 

यह था गोपालराम गहमरी की मासिक पत्रिका जासूस का विज्ञापन जो उनके ही संपादन मे आने वाले अखबार भारत मित्र मे आया था। जिसने उक्त के हिसाब से बाज़ार मे हलचल पैदा कर दी थी नतीजा यह हुआ था की प्रकाशित होने से पहले ही सैकड़ों पाठक इसकी वार्षिक सदस्यता ले चुके थे। किसी पत्रिका के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार घटित हुआ था। यह 1900 की बात है।


गहमरी जी का कहना था कि जिसका उपन्यास पढ़कर पाठक ने समझ लिया कि सब सोलहों आने सच है उसकी लेखनी सफल परिश्रम समझनी चाहिए। गहमरी जी ने अपने रचनाओ मे पाठकों की रुचि का विशेष ध्यान रखते थे कि वे किस तरह की सामग्री पसंद करते थे। साहित्य के सन्दर्भ में उनके विचार भी उच्च कोटि के थे। वे साहित्य को भी इतिहास मानते थे उनका मानना था कि साहित्य को जिस युग में रचा जाता है उसके साथ उसका गहरा संबंध होता है। वे उपन्यास को अपने समय का इतिहास मानते थे गुप्तचर बेकसूर की फांसी, केतकी की शादी, हम हवालात मे तीन जासूस, चक्करदार खून ठन ठन गोपाल, गेरुआ बाबा मरे हुए कि मौत आदि रचनाओं में केवल रहस्य रोमांच ही नहीं है ब्लकि युग की संगतिया और विसंगतिया भी मौजूद है। समाज की दशा और दिशा का आकलन भी है यह कहकर की जासूसी और मनोरंजक रचनाये है उनकी रचनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता है न उनके योगदानों से मुंह मोड़ा जा सकता है। गहमरी जी की बाद की पीढ़ी को जो लोकप्रियता मिली उसका बहुत कुछ श्रेय देवकी नंदन खत्री और गहमरी जी को जाता है। इन्होंने अपने लेखन से वह स्थितियां बना दी थी कि लोगों का पढने की ओर रुझान बढ़ गया था। गहमरी जी ने अकेले सैकड़ों कहानिया उपन्यासों के अनुवाद किए।

यह भी एक विचित्र संयोग है कि तिलिस्मी साहित्य के साथ साथ जासूसी की भी अचानक बाढ़ आ गई और भी पाठकों ने सराहा और अपनाया हिंदी में जासूसी उपन्यासों के प्रणेता गोपाल राम गहमरी हैं।


देवकी नंदन की चंद्रकांता (1892) और नरेंद्र मोहिनी (1893) के थोड़े अन्तराल बाद अद्भुत लाश(1896) गुप्तचर (1899)के साथ गहमरी भी उदित हुए। 

इन जासूसी उपन्यासों की बढ़ती लोकप्रियता से प्रेरित होकर गहमरी ने प्रभूत मात्रा में साहित्य रचा जासूसी साहित्य के प्रभाव से समकालीन हिन्दी लेखक भी अपने को विरत न रख सके और इसी अवधि में ऐसी अनेकानेक रचनाये सामने आई। यथा रुद्रदत्त शर्मा कृत वर सिंह दरोगा (1900) किशोरी लाल गोस्वामी कृत जिन्दे की लाश (1906) जयराम सिंह कृत लंगड़ा खूनी (1908) जंग बहादुर सिंह कृत विचित्र खून (1909) शेर सिंह कृत विलक्षण जासूस (1911) चन्द्रशेखर पाठक कृत अमीर अली ठग (1911) शशि बाला (1911)और शिव नारायण द्विवेदी कृत अमर दत्त (1911)आदि। उन्हें गहमरी के समान ख्याति नहीं मिली।


गोपाल राम गहमरी पेशे से पत्रकार थे वे अकेले ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने घमरी मे बाल गंगाधर तिलक के पूरे मुकदमे को अपने शब्दों मे दर्ज किया था भिन्न-भिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में संपादकीय योगदान के कारण उनकी गिनती हिन्दी पत्रकारिता के विकास युग आदि युग मे प्रमुख संपादको में किया जाता है। बाद के दिनों में वे काशी चले आये और बनारस के बेनियाबाग के पास भवन बनाकर वहीं रहने लगे और साथ ही अखबारों और पत्रिकाओं में रोचक संस्मरण लिखते रहे। बनारस में ही, 80 वर्ष की आयु में 20 जून,1946 ई. को उनका देहांत हो गया|


इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियों के अनुसार बीते कई वर्षो से 'गहमर' में उनके सम्मान में कई साहित्यिक आयोजन किये गए एवं उस दौरान कई "लेखकों एवं साहित्यकारों" को सम्मानित भी किया गया। साथ ही ऐसे आयोजनों के दौरान 'पुस्तक मेले' का भी आयोजन किया गया। 'गहमरी जी' को सम्मानित करते हुए 'गहमर' में उनके नाम पर एक पुस्तकालय भी है ----"गोपाल राम गहमरी पुस्तकालय" | यह पुस्तकालय पूर्ण रूप से अभी भी अस्तित्व में है, लेकिन इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के कारण वहाँ पाठको की गतिविधि बहुत कम हो चुकी है।


बाबू गोपाल राम गहमरी के लिखे हुए मौलिक जासूसी उपन्यास हैं :-

1. बेकसूर की फांसी 

2. सरकती लाश 

3. बेगुनाह का खून 

4. जमुना का खून 

5. डबल जासूस 

6. खूनी कौन है 

7. मायाविनी 

8. लड़की की चोरी 

9. जादूगरनी मनोरमा 

10. थाना की चोरी 

11. भयंकर चोरी 

12. जासूस की भूल 

13. अंधे की आँख 

14. जासूस की चोरी 

15. जाल राजा 

16. मालगोदाम में चोरी 

17. डाके पर डाका 

18. डॉक्टर की कहानी 

19. जासूस पर जासूस 

21. जाली काका 

22. देवी सिंह 

23. लड़का गायब 

24. जासूस चक्कर में 

25. खूनी का भेद 

26. भोजपुर की ठगी 

27. बलिहारी बुद्धि 

28. योग महिमा 

29. अजीब लाश 

30. गुप्त भेद 

31. गुप्तचर 

32. गाड़ी में खून 

33. किले में खून 

34. गुप्तभेद 

35. भयंकर चोरी 

36. रूप सन्यासी 

37. लटकती लाश 

38. कोतवाल का खून

39. हम हवालात में 

40. खूनी 

41. ठगों का हाथ 

42. लाश किसकी है 

43. आँखों देखी घटना 

44. मटोपटो 

45. हत्या कृष्णा 

46. अपराधी की चालाकी 

47. सुन्दर वेनी 

48. अपनी राम कहानी 

49. विकट भेद 

50. जासूस की विजय 

51. मुर्दे की जाँच

52. मेम की लाश 

53. जासूस की जवांमर्दी 

54. जासूसी पर 

55. जैसा मुँह वैसा थप्पड़ 

56. सरवर की सुरागरसी 

57. खूनी की चालाकी 

58. चांदी का चक्कर 

59. गुसन लाल दरोगा 

60. भीतर का भेद 

61. धुरंधर जासूस 

62. हमारी डायरी 

63. खूनी की खोज 

64. जासूस की डायरी 

65. जासूस की बुद्धि 

66. कैदी की करामात 

67. देवी नहीं दानवी 

68. सोहनी गायब 

69. डॉक्टर की कहानी 

70. केश बाई 

71. केतकी की शादी 

72. नीमा 

73. अर्थ का अनर्थ 

74. मरे हुए की मौत 

75. देखी हुई घटना 

76. जासूस जगन्नाथ 

77.भयंकर चोरी 

78. नगद नारायण 

79. डकैत कालूराम 

80. भयंकर भेद 

81. स्वयंवरा 

82. भंडाफोड़ 

83. रहस्य विप्लव 

84. होली का हरझोग 

85. जमींदारों का जुल्म...इत्यादि 🙏


✍️ आशुतोष मिश्रा


3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही रोचक एवम महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए धन्यवाद भाई।👌👌

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  2. मेरे आलेख को अपने ब्लॉग पर जगह देने के लिए आपका शुक्रिया.... सुनील भाई...... 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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  3. Itne purane or pratham jasoosi upanyaskar ke baare me bahut hi achchhi jaankari. Really cool.

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